आखिर आज होली का दिन आ गया। आज के दिन का क्या पूछना जिसने साल भर चाथड़ों पर काटा वह भी आज कहीं न कहीं से उधार ढूँढ़कर लाता है और खुशी मनाता है। आज लोग लँगोटी में फाग खेलते है। आज के दिन रंज करना पाप है। पंडित जी की शादी के बाद यह दूसरी होली पड़ी थी। पहली होली में बेचारे खाली हाथ थे। बीवी की कुछ खातिर न कर सके थे। मगर अब की उन्होंने बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की थी। कोई डढ़ सौ, रुपया ऊपर से कमाया था, उसमें बीवी के वास्ते एक सुन्दर कंगन बनवा था, कई उत्तम साड़ियाँ मोल लाये थे और दोस्तों को नेवता भी दे रक्खा था। इसके लिए भॉँति-भॉँति के मुरब्बे, आचार, मिठाइयॉँ मोल लाये थे। और गाने-बजाने के समान भी इकट्टे कर रक्खे थे। पूर्णा आज बनाव-चुनाव किये इधर-उधर छबि दिखाती फिरती थी। उसका मुखड़ा कुन्दा की तरह दमक रहा था उसे आज अपने से सुन्दर संसार में कोई दूसरी औरत न दिखायी देती थी। वह बार-बार पति की ओर प्यार की निगाहों से देखती। पण्डित जी भी उसके श्रृंगार और फबन पर आज ऐसी रीझे हुए थे कि बेर-बेर घर में आते और उसको गले लगाते। कोई दस बजे होंगे कि पण्डित जी घर में आये और मुस्करा कर पूर्णा से बोले—प्यारी, आज तो जी चाहता है तुमको ऑंखों में बैठे लें। पूर्णा ने धीरे से एक ठोका देकर और रसीली निगाहों से देखकर कहा—वह देखों मैं तो वहॉँ पहले ही से बैठी हूँ। इस छबि ने पण्डित जी को लुभा लिया। वह झट बीवी को गले से लगाकर प्यार करने। इन्हीं बातों में दस बजे तो पूर्णा ने कहा—दिन बहुत आ गया है, जरा बैठ जाव तो उबटन मल दूँ। देर हो जायगी तो खाने में अबेर-सबेर होने से सर दर्द होने लेगेगा।
पण्डित जी ने कहा—नहीं-नहीं दो। मैं उबटन नहीं मलवाऊँगा। लाओ धोती दो, नहा आऊँ।
पूर्णा—वाह उबटन मलवावैंगे। आज की तो यह रीति ही है। आके बैठ जाव।
पण्डित—नहीं, प्यारी, इसी वक्त जी नहीं चाहता, गर्मी बहुत है।
पूर्णा ने लपककर पति का हाथ पकड़ लिया और चारपाई पर बैठकर उबटन मलने लगी।
पण्डित—मगर ज़रा जल्दी करना, आज मैं गंगा जी नही जाना चाहता हूँ।
पूर्णा-अब दोपहर को कहॉँ जाओगे। महरी पानी लाएगी, यहीं पर नहा लो।
पण्डित—यही प्यारी, आज गंगा में बड़ी बहार रहेगी।
पूर्णा—अच्छा तो ज़रा जल्दी लौट आना। यह नहीं कि इधर-उधर तैरने लगो। नहाते वक्त तुम बहुत तुम बहुत दूर तक तैर जाया करते हो।
थोड़ी देर मे पण्डित जी उबटन मलवा चुके और एक रेश्मी धोती, साबुन, तौलिया और एक कमंडल हाथ मे लेकर नहाने चले। उनका कायदा था कि घाट से जरा अलग नहा करते यह तैराक भी बहुत अच्छे थे। कई बार शहर के अच्छे तैराको से बाजी मार चुके थे। यद्यपि आज घर से वादा करके चले थे कि न तैरेगे मगर हवा ऐसी धीमी-धीम चल रही थी और पानी ऐसा निर्मल था कि उसमे मद्धिम-मद्धिम हलकोरे ऐसे भले मालूम होते थे और दिल ऐसी उमंगों पर था कि जी तैरने पर ललचाया। तुरंत पानी में कूद पड़े और इधर-उधर कल्लोंले करने लगे। निदान उनको बीच धारे में कोई लाल चीजे बहती दिखाया दी। गौर से देखा तो कमल के फूल मालूम हुए। सूर्य की किरणों से चमकते हूए वह ऐसे सुन्दर मालम होते थे कि बसंतकुमार का जी उन पर मचल पड़ा। सोचा अगर ये मिल जायें तो प्यारी पूर्णा के कानों के लिए झुमके बनाऊँ। वे मोटे-ताजे आदमी थे। बीच धारे तक तैर जाना उनके लिए कोई बड़ी बात न थी। उनको पूरा विश्वास था कि मैं फूल ला सकता हूँ। जवानी दीवानी होती है। यह न सोचा था कि ज्यों-ज्यों मैं आगे बढूँगा त्यों-त्यों फूल भी बढ़ेंगे। उनकी तरफ चले और कोई पन्द्रह मिनट में बीच धारे में पहूँच गये। मगर वहॉँ जाकर देखा तो फूल इतना ही दूर और आगे था। अब कुछ-कुछ थकान मालूम होने लगी थी। मगर बीच में कोई रेत ऐसा न था जिस पर बैठकर दम लेते। आगे बढ़ते ही गये। कभी हाथों से ज़ोर मारते, कभी पैरों से ज़ोर लगाते, फूलों तक पहूँचे। मगर उस वक्त तक हाथ-पॉँव दोनों बोझल हो गये थे। यहॉँ तक कि फूलों को लेने के लिए जब हाथ लपकाना चाहा तो उठ न सका। आखिर उनको दॉँतों मे दबाया और लौटे। मगर जब वहॉँ से उन्होंने किनारों की तरफ देखा तो ऐसा मालूम हुआ मानों हजार कोस की मंजिल है। बदन में जरा भी शक्ति बाकी न रही थी और पानी भी किनारे से धारें की तरफ बह रहा था। उनका हियाव छूट गया। हाथ उठाया तो वह न उठे। मानो वह अंग में थे ही नहीं। हाय उस वक्त बसंतकुमार के चेहरे पर जो निराशा और बेबसी छायी हुई थी, उसके खयाल करने ही से छाती फटती है। उनको मालूम हुआ कि मैं डूबा जा रहा हूँ। उस वक्त प्यारी पूर्णा की सुधि आयी कि वह मेरी बाट देख रही होगी। उसकी प्यारी-प्यारी मोहनी सूरत ऑंखें के सामने खड़ी हो गयी। एक बार और हाथ फेंका मगर कुछ बस न चला। ऑंखों से ऑंसू बहने लगे और देखते-देखते वह लहरों में लोप हा गये। गंगा माता ने सदा के लिए उनको अपनी गोद मे लिया। काल ने फूल के भेस मे आकर अपना काम किया।
उधर हाल का सुलिए। पंडित जी के चले आने के बाद पूर्णा ने थालियॉँ परसीं। एक बर्तन में गुलाल घोली, उसमें मिलाया। पंडित जी के लिए सन्दूक से नये कपड़े निकाले। उनकी आसतीनों में चुन्नटें डाली। टोपी सादी थी, उसमें सितारें टॉँके। आज माथे पर केसर का टीका लगाना शुभ समझा जाता है। उसने अपने कोमल हाथों से केसर और चन्दन रगड़ा, पान लगाये, मेवे सरौते से कतर-कतर कटोरा में रक्खे। रात ही को प्रेमा के बग़ीचे से सुन्दर कलियॉँ लेती आयी थी और उनको तर कपड़े में लपेट कर रख दिया था। इस समय वह खूब खिल गयी थीं। उनको तागे में गुँथकर सुन्दर हार बनाया और यह सब प्रबन्ध करके अपने प्यारे पति की राह देखने लगी। अब पंडित जी को नहाकर आ जाना चाहिए था। मगर नहीं, अभी कुछ देर नहीं हुई। आते ही होगें, यही सोचकर पूर्णा ने दस मिनट और उनका रास्ता देखा। अब कुछ-कुछ चिंता होने लगी। क्या करने लगे? धूप कड़ी हो रही है। लौटने पर नहाया-बेनहाया एक हो जाएगा। कदाचित यार दोस्तों से बातों करने लगे। नहीं-नहीं मैं उनकों खूब जानती हूँ। नदी नहाने जाते हैं तो तैरने की सुझती है। आज भी तैर रहे होंगे। यह सोचकर उसने आधा घंटे और राह देखी। मगर जब वह अब भी न आये तब तो वह बैचैन होने लगी। महरी से कहा—‘बिल्लों जरा लपक तो जावा, देखो क्या करने लगे। बिल्लों बहुत अच्छे स्वाभव की बुढ़िया थी। इसी घर की चाकरी करते-करते उसके बाल पक गये थे। यह इन दोनों प्राणियों को अपने लड़कों के समान समझती थी। वह तुरंत लपकी हुई गंगा जी की तरफ चली। वहॉँ जाकर क्या देखती है कि किनारे पर दो-तीन मल्लाह जमा हैं। पंडित जी की धोती, तौलिया, साबुन कमंडल सब किनारे पर धरे हुए हैं। यह देखते ही उसके पैर मन-मन भर के हो गए। दिल धड़-धड़ करने लगा और कलेजा मुँह को आने लगा। या नारायण यह क्या ग़जब हो गया। बदहवास घबरायी हुई नज़दीक पहूँची तो एक मल्लाह ने कहा—काहे बिल्लों, तुम्हारे पंडित नहाय आवा रहेन।